प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण

समुद्री जलधारा समुद्री जल की क्षैतिज गति है और समुद्री सतह पर परिभाषित मार्ग का अनुसरण करती है। यह हजारों किमी तक चलने वाली जल प्रवाह है, जो समुद्री जल के तापीय तथा रासायनिक गुणों को संतुलित रखने की दिशा में कार्य करती है। इसकी उत्पत्ति कई कारकों के अंतरक्रिया का परिणाम है। इन कारकों को हम चार वर्गों में रखते हैं।
दिशाओं से जीवन में समृद्धि
व्याधिं मृत्यं भय चैव पूजिता नाशयिष्यसि। सोऽह राज्यात् परिभृष्टः शरणं त्वां प्रपन्नवान।। प्रण्तश्च यथा मूर्धा तव देवि सुरेश्वरि। त्राहि मां पùपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्य नः।। ”तुभ पूजित होने पर व्याधि, मृत्यु और संपूर्ण भयों का नाश करती हो। मैं राज्य से भृष्ट हूं इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूं। कमलदल के समान नेत्रों वाली देवी मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूं। मेरी रक्षा करो। हमारे लिए सत्यस्वरूपा बनो। शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले मुझे शरण दो।“ महाभारत युद्ध आरंभ होने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को यह स्तुति की सलाह देते हुए कहा ”तुम शत्रुओं को पराजित करने के लिए रणाभिमुख होकर पवित्र भाव से दुर्गा का स्मरण करो।“ अपने राज्य से भृष्ट पाण्डवों द्वारा की गई यह स्तुति वेद व्यास कृत महाभारत में है। महर्षि वेद व्यास का कथन है ”जो मनुष्य सुबह इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस, पिशाच भयभीत नहीं करते, वह आरोग्य और बलवान होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है। संग्राम में सदा विजयी होता है और लक्ष्मी प्राप्त करता है।“ महाज्ञानी और श्रीकृष्ण के परम भक्त पाण्डवों ने यह स्तुति मां दुर्गा को श्रीकृष्ण की बहन के रूप में ही संबोधित करके आरंभ की। ”यशोदागर्भ सम्भूतां नारायणवर प्रियाम्। … वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्य विभूषिताम्….।। इसी प्रकार बहुत से स्तोत्र एवं स्तुतियां ग्रंथों में मिलती हैं, जो भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की होने पर भी लगभग एक सा ही फल देने वाली मानी गई है। जैसे कि शत्रुओं पर विजय, भय, रोग, दरिद्रता का नाश, लंबी आयु, लक्ष्मी प्राप्ति आदि। एक ही देवी-देवता की भी अलग-अलग स्तुतियां यही फल देने वाली कही गई हैं। उदाहरणतया रणभूमि में थककर खड़े श्री राम को अगस्त्य मुनि ने भगवान सूर्य की पूजा आदित्य स्तोत्र से करने को कहा ताकि वे रावण पर विजय पा सकें। पाण्डव तथा श्रीराम दोनों ही रणभूमि में शत्रुओं के सामने खड़े थे, दोनों का उद्देश्य एक ही था। श्रीराम त्रेता युग में थे और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात रावण पर विजयी हुए। इस प्रकार युद्ध में विजय दिलाने वाला आदित्य हृदय स्तोत्र तो एक सिद्ध एवं वेध उपाय था, तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को दुर्गा स्तुति की जगह इसका पाठ करने की सलाह क्यों नहीं दी ? ऐसी स्थिति में उचित निर्णय लेने के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक सिद्धांत दिये हें जैसे देश, काल व पात्र को भी ध्यान में रखकर निर्णय लेना। उपासक को किस देवी देवता की पूजा करनी है, यह इस प्रकार एक श्लोक के भावार्थ से स्पष्ट होता है। अर्थात् आकाश तत्व के स्वामी विष्णु, अग्नि तत्व की महेश्वरि, वायु तत्व के सूर्य, पृथ्वी तत्व के शिव तथा जल तत्व के स्वामी गणेश ळें। योग पारंगत गुरुओं को चाहिये कि वे प्रकृति एवं प्रवृत्ति की तत्वानुसार परीक्षा कर शिष्यों के उपासना अधिकार अर्थात किस देवी देवता की पूजा की जाये का निर्णय करें। यहां उपासक की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को महत्व दिया गया है। अभिप्राय यह है कि किस देवी-देवता की किस प्रकार से स्तुति की जाये। इसका निर्णय समस्या के स्वभाव, देश, समय तथा उपासक की प्रकृति, प्रवृत्ति, आचरण, स्वभाव इत्यादि को ध्यान में रखकर करना चाहिये। जैसे अहिंसा पुजारी महात्मा गांधी तन्मयता से ”वैष्णव जन को“ तथा ”रघुपति राघव राजा राम“ गाते थे। चंबल े डाकू काली और भैरों की पूजा पाठ करते आये हैं। भिन्न प्रकृति, प्रवृत्ति व स्वभाव के अनुसार इष्टदेव का चुनाव भी अलग-अलग तत्व के अधिपति देवी-देवताओं का हुआ। यह कैसे जाने कि उपासक में किस तत्व की प्रवृत्ति एवं प्रकृति है? यहां भी हम वास्तुशास्त्र की सहायता ले सकते हैं। वास्तुशास्त्र में दिशाओं को विशेष स्थान प्राप्त है जो इस विज्ञान का आधार है। यह दिशाएं प्राकृतिक ऊर्जा और ब्रह्माड में व्याप्त रहस्यमयी ऊर्जा को संचालित करती हैं, जो राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की शक्ति रखती है। इस शास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा में अलग-अलग तत्व संचालित होते हैं, और उनका प्रतिनिधित्व भी अलग-अलग देवताओं द्वारा होता है। वह इस प्रकार है। उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं, जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है, जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित करता है। उत्तर पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता है। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान प्रभावित होते हैं। पूर्व दिशा के देवता इन्द्र हैं, जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आमतौर पर सूर्य को ही इस दिशा का स्वामी माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तु अनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं जिससे सुख संतोष तथा आत्म विश्वास प्रभावित होता है। दक्षिण पूर्व (आग्नेय कोण) के देवता अग्निदेव हैं, जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं। दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं, जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं, जिन्हे धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियां व शांति प्राप्ति होती है। दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं, जिन्हें दैत्यों प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण का स्वामी कहा जाता है, जिससे आत्म शुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एवं आयु प्रभावित होती है। पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं, जिन्हें जल तत्व का स्वामी कहा जाता है, जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं, जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है। उत्तर पश्चिम के देवता पवन देव हैं, जो हवा के स्वामी हैं, जिससे संपूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी, योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तुशास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है, वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है, अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशायें आपको रंक से राजा बनाकर जीवन में रस रंगों को भर देती हैं। अतः वास्तु शास्त्र में पांच तत्वों की पूर्ण महत्व दिया है, जैसे घर के ब्रह्मस्थान का स्वामी है, आकाश तत्व, पूर्व दक्षिण का स्वामी अग्नि, दक्षिण-पश्चिम का पृथ्वी, उत्तर-पश्चिम का वायु तथा उत्तर पूर्व का अधिपति हैं, जल तत्व। अपने घर का विधिपूर्वक परीक्षण करके यह जाना जा सकता है कि यहां रहने वाले परिवार के सदस्य किस तत्व से कितना प्रभावित हैं, ग्रह स्वामी तथा अन्य सदस्यों को किस तत्व से सहयोग मिल रहा है तथा कौन सा तत्व निर्बल है। यह भी मालूम किया जा सकता है कि किस सदस्य की प्रकृति व प्रवृत्ति किस प्रकार की है। अंत में यह निर्णय लेना चाहिये कि किस सदस्य को किसकी पूजा करने से अधिक फलीभूत होगी। किस अवसर या समस्या के लिए किस पूजा का अनुष्ठान किया जाये यह भी वास्तु परीक्षण करके मालूम किया जा सकता है।
प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण
#रेतसमाधि #गितांजलिश्री #समीक्षा
‘रेत समाधि’ किसी भी दृष्टि से आसान उपन्यास नहीं है। यदि आप इसमें कोई सुदीर्घ और बाँधे रखने वाले घटनाक्रम से नियोजित प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण कथासूत्र ढूँढेंगे तो आप को निराशा होगी। इस उपन्यास की ताक़त है इसके संवादों और वर्णन-शैली का चमत्कार जो सच में चमत्कृत करता है।
एक बूढ़ी अम्मा हैं जो अपने पति की मृत्यु के बाद खटिया पकड़ लेती हैं, और घर वालों की ओर पीठ कर लेटी रहती हैं। और फिर एक दिन सब छोड़-छार कर उड़ चलती हैं। उड़ कर जा बैठतीं हैं उस डाल पर जिसपर उनकी आज़ाद ख़याल बेटी अकेली रहती है। बेटी अम्मा की उड़ान देख कर कभी चमत्कृत होती है तो कभी आश्चर्यमिश्रित खुशी से भर जाती है, कभी कभी झुँझलाती भी है। अफ़सर बेटा, उसकी बीवी और विदेश से आते जाते उनके बच्चे, सखा -सहचर जैसी रोज़ी जिसकी दो आत्माएँ एक ही शरीर में बसती हैं, अम्मा की इस उड़ान की कथा के अन्य मुख्य किरदार हैं। साथ ही, दहलीज़-दरवाज़ा, छड़ी, कौवा, पेड़ -पौधे, फूल, भारत से पाकिस्तान, वहाँ के शहर वहाँ के लोग, और कई सारे अन्य चरित्र उनकी इस उड़ान की कथा में तैरते, बहते हुए जुड़ते दीखते हैं। सब के सब सजीव, भाषा के साथ प्रवाहमान सारा कुछ अस्थिर, तरलता से भरा हुआ.
निर्धारण मराठी में
न्यायालयाने म्हटले, की रक्त संक्रमित करण्याचे फर्मान, “असंविधानिक होते व त्याने वादीला, कायद्याच्या रीतसर प्रक्रियेशिवाय धर्मपालनाचे स्वातंत्र्य, तिचा एकांत व शारीरिक स्वयं-निर्धार या हक्कांपासून वंचित केले.”
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल ने केंद्रीय सूची में अन्य पिछड़ा वर्गों के उप-वर्ग निर्धारण के विषय की पड़ताल करने के लिए आयोग की अवधि को नवंबर, 2018 तक विस्तार देने की मंजूरी दे दी है।
पंतप्रधान नरेंद्र मोदी यांच्या अध्यक्षतेखाली झालेल्या केंद्रीय मंत्रीमंडळाच्या बैठकीत, केंद्रीय सूचीमध्ये इतर मागासवर्गांच्या उपवर्गीकरणाच्या मुद्याच्या पडताळणीसाठीच्या आयोगाला नोव्हेंबर 2018 पर्यंत मुदतवाढ द्यायला मंजुरी देण्यात आली.
दोनों स्टीव स्मिथ और डेविड वॉर्नर ने भारत के खिलाफ श्रृंखला का निर्धारण करने के कारण अनुपलब्ध के साथ, एरॉन फिंच की सीरीज के लिए ऑस्ट्रेलिया के कप्तान के रूप में नामित किया गया था।
आठ दिशाएं कौन कौन सी हैं?
इसे सुनेंरोकेंजहां पर दो दिशाएं आपस में मिलती है वह कोण बहुत मायने रखता है। – उत्तर और पूर्व के बीच वाले कोण को उत्तर-पूर्व या ईशान कहते हैं। – पूर्व और दक्षिण के बीच वाले कोण को दक्षिण-पूर्व या आग्नेय कहते हैं। – दक्षिण और पश्चिम के बीच वाले कोण को दक्षिण-पश्चिम या नैऋत्य कहते हैं।
दिशा कैसे चेक करें?
इसे सुनेंरोकेंदिशाओं का निर्धारण उत्तर से होना चाहिए। इसके लिए दिशा बोधक यंत्र या कुतुबनुमा (कंपास) का प्रयोग करना चाहिए। कंपास की सुई उत्तर दिशा में रहती हैं क्योंकि वह उत्तर से आती हुई ऊर्जा तरंगों से आकर्षित रहती हैं। इस दिशा सूचक यंत्र के किसी भी भूखंड की चारों दिशाओं और चारों कोणों का ज्ञान आसानी से हो जाता हैं।
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए मन के दसों दिशाओं में घूमने का क्या अभिप्राय है?
पश्चिम और दक्षिण के बीच की दिशा को क्या कहते हैं?
इसे सुनेंरोकेंनैऋत्य:- दक्षिण-पश्चिम के बीच को नैऋत्य दिशा कहते हैं. इस दिशा में खुलापन अर्थात खिड़की, दरवाजे बिल्कुल ही नहीं होना चाहिए.
इसे सुनेंरोकेंसबसे पहले आपको अपने फोन में play store से Compass नाम के app को इनस्टॉल करना है अब आप इस app को ओपन कर ले व इसकी स्क्रीन को आसमान की तरफ रखे इसके बाद इस app में आपको screen पर सभी दिशाओ के में दिखाया जायेगा किस कौनसी दिशा किस तरफ है. इस app में आपको दिशा निम्न तरीके से निर्देशित करती है.
10 दिशाएं कौन सी है?
इसे सुनेंरोकेंदिशाएं 10 होती हैं जिनके नाम और क्रम इस प्रकार हैं- उर्ध्व, ईशान, पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर और अधो। एक मध्य दिशा भी होती है। इस तरह कुल मिलाकर 11 दिशाएं हुईं। हिन्दू धमार्नुसार प्रत्येक दिशा का एक देवता नियुक्त किया गया है जिसे ‘दिग्पाल’ कहा गया है अर्थात दिशाओं के पालनहार।
खगोलीय कारक
जल धाराओं की उत्पत्ति के तीन महत्वपूर्ण खगोलीय कारण हैं।
- पृथ्वी की घूर्णन गति
- गुरुत्वाकर्षण
- विक्षेप बल
- पृथ्वी की घूर्णन गति – पृथ्वी के घूर्णन के कारण पृथ्वी पर स्थित सभी पदार्थ तरल या ठोस पृथ्वी के घूर्णन की दिशा के विपरीत गतिशील हो जाते हैं। घूर्णन का सर्वाधिक प्रभाव निम्न अक्षांश क्षेत्रों में होता है, क्योंकि वहां घूर्णन की गति सर्वाधिक होती है। इसी कारण निम्न अक्षांशीय प्रदेश में समुद्री धाराएं पृथ्वी की घूर्णन की दिशा के विपरीत गतिशील रहती हैं, जैसे-विषुवतीय गर्म जल धाराएं।
- गुरुत्वाकर्षण – के प्रभाव के कारण समुद्री जल में नीचे बैठने की प्रवृत्ति होती है। क्योंकि समुद्र की तली ठोस है अतः यह नीचे नहीं जा पाते तथा नीचे ना जा पाने के कारण क्षैतिज अपवाह विकसित करते हैं।
- विक्षेप बल – पृथ्वी के घूर्णन से तरल एवं हल्के पदार्थों में पृथ्वी की सतह को छोड़ने की प्रवृत्ति होती है। फेरल के नियम से ऐसे बाहर फेंकते हुए पदार्थ उत्तरी गोलार्ध में अपनी मूल दिशा से दाएं तरफ तथा दक्षिणी गोलार्ध में बाएं तरफ मुड़ जाती है। यही कारण है कि कोई भी जलधारा सीधी रेखा (दिशा) में गतिशील नहीं है। वे प्रचलित वायु के समान उत्तरी गोलार्ध में मूल दिशा से दाएं तरफ तथा दक्षिणी गोलार्ध में बाएं तरफ मुड़ जाती है, एवं उसी दिशा में अपवाहित होती हैं।
वायुमंडलीय कारक
जल धाराओं के विकास में वायुमंडलीय कारकों का अभूतपूर्व प्रभाव पड़ता है। वायुमंडलीय कारकों में वायु प्रवाह की दिशा तथा गति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वस्तुतः विश्व की सभी प्रमुख जल धाराएं प्रचलित वायु की दिशा की ओर अपवाहित होती है। जैसे उत्तरी अटलांटिक महासागर प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण में पछुआ वायु का मार्ग तथा उत्तरी अटलांटिक प्रवाह दोनों एक ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। पुनः उत्तरी पूर्वी एवं दक्षिणी पूर्वी संमार्गी वायु तथा उत्तरी एवं दक्षिणी विषुवतीय जलधारा समान मार्ग का अनुसरण करती है। विषुवतीय प्रदेश में व्यापारिक पवनों के अभिसरण के फलस्वरुप एक विषुवतीय पछुआ वायु चलती है, प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण इसी के अनुरूप विषुवतीय प्रतिरोधी गर्म जलधारा भी चलती है।
अन्य जलवायु कारकों में वायुदाब और वर्षा का भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। उच्च वायुदाब प्रदेश में जल की ऊपरी सतह नीचे जाने की प्रवृत्ति रखती है, जबकि तुलनात्मक रूप से निम्न वायु भार प्रदेश में जल ऊंचाई पर होता है तथा वे उच्च वायु भार प्रदेश की ओर गतिशील होता है। जैसे उत्तरी अटलांटिक में कनारी शीतल जलधारा। पुनः वर्षा प्रदेशों में जल की आपूर्ति अधिक होती है। ऐसी स्थिति में जल का प्रवाह अन्य प्रदेश में होता है। विषुवतीय प्रदेशों में वर्षा जल की अधिकता के कारण ही इस प्रदेश से गर्म धाराएं दूसरे प्रदेश की तरफ अपवाहित होती हैं, जैसे- गल्फस्ट्रीम। पेरू जलधारा को दक्षिणी चिली के भारी वर्षा से अधिक जल की प्राप्ति होती है।
समुद्री कारक
समुद्री कारकों में समुद्री जल का तापमान, दबाव, प्रवणता, लवणता तथा हिमशिला खण्डो का पिघलना भी महासागरीय जल में गति उत्पन्न करते हैं। वे समुद्री क्षेत्र जहां तापीय प्रभाव अधिक होता है, वहां समुद्री जल में फैलाव होता है। इसके विपरीत निम्न ताप और उच्च भार के क्षेत्र में समुद्री जल में नीचे जाने की प्रवृत्ति होती है। ऐसी स्थिति में अधिक तापीय प्रदेश का जल निम्न या मध्य तापीय प्रदेश की ओर अपवाहित होता है, जैसे गल्फस्ट्रीम एवं क्यूरोशिवो गर्म जलधारा। अधिक गर्म जल में समुद्री दबाव कम होता है, तथा ठंडे जल में दबाव अधिक होता है।
अतः जो दाब प्रवणता उत्पन्न होती है, वही जल धाराओं की उत्पत्ति का कारण बनता है। अधिक लवणता के समुद्री जल तुलनात्मक रूप से अधिक घनत्व रखते हैं तथा उसमें भी बैठने की प्रवृत्ति रहती है। इसके विपरीत कम लवणता के जल में बैठने की प्रवृत्ति नहीं होती है, तथा वे अधिक लवणता के जल की तरह गतिशील हो जाते हैं, जैसे अटलांटिक महासागर से भूमध्य सागर की ओर जल प्रवाह।
उच्चावच एवं स्थलाकृति कारक
स्थलाकृतिक संरचना का पर्याप्त प्रभाव समुद्री धाराओं पर पड़ता है। यह उनकी उत्पत्ति में सहायक नहीं है, लेकिन उनके दिशा निर्धारण में सहायक होते हैं। इसे संशोधक कारक भी कहा जाता है। जैसे अटलांटिक महासागर में उत्तरी विषुवतीय गर्म जलधारा का अपवाह क्षेत्र 0 डिग्री से 12 डिग्री उत्तरी अक्षांश के बीच है। लेकिन जब यह धाराएं मध्य कटक के पास आती है। तब इसकी दिशा उत्तर की तरफ मुड़ जाती है, और यह 25 डिग्री N अक्षांश तक प्रवाहित होती है। जब मध्य कटक की ऊंचाई में कमी आती है, तब ये धाराएं मध्यवर्ती कटक को पार कर पूर्व के मार्ग पर अर्थात 0 डिग्री से 12 डिग्री N अक्षांश के मध्य चलने लगती है।
तटवर्ती स्थल आकृतियों के प्रभाव से भी जलधाराएं संशोधित हो जाती हैं। जैसे दक्षिणी पूर्वी मानसूनी जलधाराएं तथा विषुवतीय जलधारा जो महाद्वीपीय स्थलाकृति के पास आते ही संशोधित हो जाती है। महाद्वीपीय अवरोध न होने के कारण दक्षिणी गोलार्ध में पश्चिमी वायु प्रवाह की जलधारा एक विश्व स्तरीय जलधारा है। यह एकमात्र जलधारा है जो विश्व प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण स्तरीय जलधारा है और जो पूरे गोलार्ध में घूमती है। जबकि विषुवतीय जलधाराएं तथा पछुआ वायु के प्रभाव से चलने वाली जलधाराएं स्थल आकृतियों द्वारा संशोधित होती है।