लहर मूल्य विश्लेषण

डेली अपडेट्स
पिछला वित्त वर्ष 2020-21 भारत की अर्थव्यवस्था के लिये एक रोलर कोस्टर की सवारी से कम नहीं रहा। जहाॅं देशभर में आंशिक, पूर्ण लॉकडाउन एवं कर्फ्यू के साथ बेरोज़गारी में वृद्धि देखी गई। इन कारणों से वित्तीय वर्ष 2021-22 तक भी जीडीपी वर्ष 2019-20 की विकास दर स्तर पर लौटने का कोई अनुमान नहीं है। इन अनुमानों को वर्ष 2020 के अंत में संशोधित किया गया था, साथ ही अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने की उम्मीद जताई गई थी।
हालाॅंकि जब आईएमएफ ने भारत के सकल घरेलू उत्पाद के पूर्वानुमान को वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिये 12.5% तक रहने की संभावना जताई तो अर्थव्यवस्था में सकारात्मक सुधार की उम्मीद दिखी, किंतु कोविड-19 की दूसरी लहर व्यवसायों और उपभोक्ताओं के लिये बेहद भयावह साबित हो रही है।
भारत में प्रतिदिन कोविड-19 के नए मामले बड़ी संख्या में बढ़ रहे हैं तथा विश्व में कोविड-19 के 20% नए मामले केवल भारत में दर्ज किये जा रहे हैं। भारत की स्थिति पिछले साल की तुलना में अधिक खराब होती जा रही है एवं अभी भी भारत की एकमात्र उम्मीद यहाॅं टीके की अधिकाधिक उपलब्धता है।
भारत की आर्थिक स्थिति में सुधार:
- आर्थिक वृद्धि को प्रभावित करने वाले कारक: कुछ महीनों पहले केंद्रीय बजट में सकल कर संग्रह के संशोधित अनुमानों के अनुसार, ₹ 20.16 लाख करोड़ (₹ 20.16 ट्रिलियन) तक रहने का अनुमान है जो पिछले अनुमान की तुलना में ₹1.2 लाख करोड़ अधिक है। वर्ष 2020-21 में केंद्र सरकार का अप्रत्यक्ष कर संग्रह 10.71 लाख करोड़ रुपए तक पहुॅंच गया है जो 2019-20 के कर संग्रह से अधिक है।
- केंद्र के अप्रत्यक्ष कर संग्रह ने वित्तीय वर्ष 2020-21 में ₹10.71 लाख करोड़ का आँकड़ा प्राप्त किया है, जो वित्तीय वर्ष 2019-20 के कर संग्रह से अधिक है।
- क्रय प्रबंधक सूचकांक (पीएमआई), ट्रैक्टर और दोपहिया बिक्री, माल एवं सेवा कर संग्रह, ई-वे बिल और रेल माल यातायात जैसे संकेतक 2021 में निरंतर वृद्धि दर्शा रहे हैं।
- निर्यात के आँकड़ों में भी 31 बिलियन डॉलर की भारी उछाल देखी गई है।
कोविड मामलों और लॉकडाउन का प्रभाव:
- एनआईबीआरआई के अनुसार सबसे अधिक वीक-ऑन-वीक डिक्लाइन: नोमुरा इंडिया बिजनेस रिजंप्शन इंडेक्स (एनआईबीआरआई), आर्थिक गतिविधि के सामान्यीकरण को साप्ताहिक रूप से जाँचता है। इसके अनुसार, फरवरी, 2021 में सूचकांक 99 अंक तक पहुॅंच गया, लेकिन अप्रैल में यह सूचकांक गिरकर 90.5 पर आ गया, जो वीक-ऑन-वीक में बड़ी गिरावट है।
- इस गिरावट का कारण मुख्य रूप से कोविड -19 की दूसरी लहर है।
- यहाॅं तक कि इन राज्यों में आंशिक लॉकडाउन एवं लॉकडाउन के कारण लगे प्रतिबंध भी आर्थिक गतिविधियों को प्रमुख रूप से प्रभावित करेंगे। साथ ही, यदि अनियंत्रित संक्रमणों के कारण लॉकडाउन को आगे बढ़ाया जाता है, तो नुकसान और भी अधिक व्यापक होगा।
- कोविड-19 मामलों की हालिया स्थिति ने आर्थिक मोर्चों पर चिंता बढ़ा दी है, विशेषकर अब जब दूसरी लहर के कारण आंशिक रूप से आर्थिक गतिविधियों पर कठोर प्रतिबंध लगाए जाने की संभावना है।
- वर्तमान में लगाए जा रहे प्रतिबंध जैसे कि रात के समय कर्फ्यू और सप्ताहांत में लॉकडाउन आर्थिक रूप से कम चिंताजनक हैं। हालाॅंकि, अगर स्थिति बिगड़ती है, तो कठोर उपाय करना ज़रूरी हो जाएगा।
आगे की राह
- टीकाकरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका: अर्थव्यवस्था को एक और बड़े व्यवधान से बचाने का एकमात्र प्रभावी तरीका टीकों की मांग और आपूर्ति दोनों में तेज़ी लाना है।
- अब तक 10 करोड़ से अधिक टीके लगाए जा चुके हैं; लेकिन इसमें से देश की आबादी के केवल 8% हिस्से को ही कम-से-कम एक डोज प्राप्त हुई है, इसके विपरीत अमेरिका और यूके जैसे देश अपनी कुल आबादी के 50% हिस्से का टीकाकरण कर चुके हैं।
- कोविड-19 की दूसरी लहर को नियंत्रित करने में टीकाकरण की भूमिका प्रमुख है। लेकिन टीकों की कमी से टीकाकरण की प्रगति धीमी हो सकती है।
- जब तक केंद्र एवं राज्य दोनों पेट्रोप्रोडक्ट्स से अपने हिस्से का राजस्व कम नहीं करते एवं ईंधन पर लगने वाले कर को कम नहीं करते तब तक उपभोक्ताओं पर मूल्य दबाव कम नहीं होगा।
- इसके अलावा, नीति निर्माताओं को यह नहीं भूलना चाहिये कि भारत पिछले साल की तुलना में वायरस से लड़ने के लिये बेहतर स्थिति में है। अतः केंद्र और राज्यों सरकारों का प्राथमिक उद्देश्य टीकाकरण अभियान को गति देना होना चाहिये।
- इसके अलावा अब तक कृषि में विकास और ग्रामीण क्षेत्रों में मांग काफी मज़बूत रही है इससे भी विकास को समर्थन मिलने की उम्मीद है।
निष्कर्ष:
अगर पिछले साल कोविड -19 कर्व को संतुलित करने एवं आर्थिक कठिनाई में से किसी एक को चुनना मुश्किल था तो इस बार यह उससे भी अधिक मुश्किल होगा। नए वित्तीय वर्ष की शुरुआत के साथ दूसरी लहर शुरू हुई है, जिसका अर्थ है कि ये लहर बजट में रूढ़िवादी राजस्व लक्ष्यों (Conservative Revenue Targets) को भी प्रभावित कर सकती है। इन सभी कठिन परिस्थितियों में, भारत के पास एकमात्र विकल्प है टीकाकरण की गति को तेज़ करना।
अभ्यास प्रश्न: कोविड-19 वक्र को संतुलित करना एवं आर्थिक कठिनाइयों में से किसी एक को चुनने के स्थान पर इनके बीच संतुलन बनाए रखना अधिक आवश्यक है। चर्चा कीजिये।
एक्सडीआर की तीन लहरें - ओपन एक्सडीआर मौजूदा निवेशों के मूल्य लहर मूल्य विश्लेषण को वितरित और विस्तारित करता है
हमने पूछा सीआईओ और सीआईएसओ जो उन्हें रात में जगाए रखता है, और दो मुख्य चिंताएं सुरक्षा जोखिमों को कम करना और विश्लेषकों के विश्वास और उत्पादकता में सुधार करना है। CxO को कॉर्पोरेट बोर्ड को रिपोर्ट करना चाहिए, और उन बोर्डों के सदस्य कंपनी की सुरक्षा स्थिति के बारे में जांच प्रश्न पूछने के बारे में समझदार हो रहे हैं। CxO को उन सवालों के जवाब चाहिए, और XDR समाधान बहुत मदद कर सकता है, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।एक्सडीआर गोद लेना तरंगों में आता है क्योंकि CxOs में दबाव की जरूरतों का जवाब देते हैं सेकऑप्स केंद्र. पहली लहर में, XDR विश्लेषकों पर बोझ कम करने के लिए पूरे हमले की सतह पर दृश्यता प्राप्त करने और आउट-ऑफ-बॉक्स डिटेक्शन और सहसंबंधी अलर्ट स्वचालित रूप से प्राप्त करने के बारे में था। कई उपकरणों से एआई और एमएल प्रौद्योगिकियों का लाभ उठाकर अलर्ट को एक साथ समूहीकृत करके, एक्सडीआर हमले का पता लगाने में देरी को खत्म करने में मदद करता है क्योंकि विश्लेषक कई उपकरणों के लिए कई कंसोल को ट्रैक करने के बजाय एक कंसोल पर संबंधित अलर्ट देख सकते हैं। वास्तव में, हमारा ओपन एक्सडीआर प्लेटफॉर्म महत्वपूर्ण अलर्ट पर ध्यान केंद्रित करना विशेष रूप से आसान बनाता है क्योंकि यह स्वचालित रूप से उन्हें कार्रवाई योग्य, प्रासंगिक घटनाओं में समूहित करता है।
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उन्नत डिजाइन और विश्लेषण समूह
सीएसआईआर-सीएमईआरआई में 'उन्नत डिजाइन एवं विश्लेषण समूह (एडीएजी)' डिजाइन और विश्लेषण के क्षेत्रों में कार्यरतल है, जो यांत्रिक प्रणाली और डिजाइन प्रक्रिया की समझ के लिए विज्ञान को एकीकृत करता है, इसमें औद्योगिक, सामाजिक और सामरिक जरूरतों को पूरा करने वाले अनुप्रयोगों के विकास शामिल हैं।
समूह की क्षमताएं और अनुभव डिज़ाइन और विश्लेषण में है, जिसमें एक्सेलेरेटर फिजिक्स, एयरोस्पेस, मोटर वाहन, बायोमैकेनिक्स, विशेष उद्देश्य की मशीनें, विनिर्माण, रासायनिक और नवीकरणीय ऊर्जा से संबंधित प्रौद्योगिकियाँ शामिल हैं, लेकिन यह इन्हीं तक सीमित नहीं हैं। समूह के पास औद्योगिक और अनुसंधान परियोजनाओं की एक विस्तृत श्रृंखला में व्यापक अनुभव है और इसने प्रयोगशाला के लक्ष्य और अधिदेश के अनुसार सफल परिणाम देने के लिए कई शैक्षणिक और औद्योगिक भागीदारों के साथ काम किया है।
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दुर्गा पूजा का सांस्कृतिक विश्लेषण
देव प्रकाशदुर्गा पूजा का पर्व भारतीय सांस्कृतिक पर्वों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है। लगभग दशहरा, दीवाली और होली की तरह इसमें उत्सव धार्मिकता का पुट आज सबसे ज़्यादा है। बंगाल के बारे में कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, कल पूरा देश उसे स्वीकार करता है। बंगाल के नवजागरण को इसी परिप्रेक्ष्य में इतिहासकार देखते हैं। यानि उन्नीसवीं शताब्दी की भारतीय आधुनिकता के बारे में भी यही बात कही जाती है कि बंगाल से ही आधुनिकता की पहली लहर का उन्मेष हुआ। स्वतंत्रता का मूल्य बंगाल से ही विकसित हुआ। सामाजिक सुधार, स्वराज्य आंदोलन, भारतीय समाज और साहित्य में आधुनिकता और प्रगतिशील मूल्य बंगाल से ही विकसित हुए और कालांतर में पूरे देश में इसका प्रचार-प्रसार हुआ।
नवजागरण का प्रयोग दुर्गा पूजा
संयोग से दुर्गा पूजा पर्व की ऐतिहासिकता बंगाल से ही जुड़ी है। आज पूरा देश इसे धूमधाम से मनाता है। दुर्गा पूजा की परंपरा का सूत्रपात यदि बंगाल से हुआ है तो इसका बंगाल के नवजागरण से क्या रिश्ता है? क्योंकि नवजागरण तो आधुनिक आंदोलन की चेतना है, जबकि दुर्गा पूजा ठीक उलट परंपरा का हिस्सा है। पर ग़ौर करने की बात है कि बंगाल दुर्गा पूजा को परंपरा की चीज़ मानकर उसे पिछड़ा या आधुनिकता का निषेध नहीं मानता है। बल्कि दुर्गा पूजा की लोकप्रियता को देखकर आज लगता है, यह भी बंगाल के नवजागरण का एक बहुमूल्य हिस्सा है। बंगाल के आधुनिक जीवन में दुर्गा पूजा की परंपरा का चलन दरअसल आधुनिकता में परंपरा का एक बेहतर प्रयोग है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए को परंपरा में प्रयोग की आधुनिकता है।
बंगाल में आज जो दुर्गा पूजा है वह अपने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में 'शक्ति पूजा' नाम से प्रचलित है, जैसे महाराष्ट्र के नवजागरण में लोकमान्य तिलक द्वारा प्रतिष्ठित गणेशोत्सव का पर्व और बीसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा चित्रकूट में रामायण मेला की स्थापना। देखा जाए तो तिलक और लोहिया भारतीय स्वराज्य और समाज के प्रखर प्रहरी थे। भारतीय आधुनिकता के विकास के ये दोनों प्रखर प्रवक्ता थे, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर ये दोनों कहीं गहरे स्तर पर पारंपारिक भी थे। तिलक द्वारा प्रतिष्ठापित 'गणेशोत्सव' और उत्तर भारत में लोहिया द्वारा 'रामायण मेला' का शुभारंभ परंपरा में आधुनिकता की खोज के दुर्लभ उदाहरण हैं।
दुर्गा पूजा बंगाल में आज भी शक्ति पूजा के रूप में प्रचलित है। अगर उसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करें तो आपको कई दिलचस्प परिणाम दिखाई पड़ेंगे। पहला परिणाम तो यह निकलता है कि बंगाल की सांस्कृतिक जड़ें अत्यंत गहरी और अपनी आस्थाओं के प्रति बेहद सचेत भी हैं। बंगाल एक छोर पर बेहद आधुनिक है तो दूसरे छोर पर अत्यंत पारंपारिक अपनी सांस्कृतिक चेतना की विरासत के प्रति सचेत है। बंगाल में शक्ति पूजा का प्रचलन आदिकाल से चला आ रहा है। शक्ति पूजा की प्रतीक देवी अपने चमचमाते खड्गशस्त्र से महिषासुर का संहार कर महिषासुरमर्दिनी कहलाई। त्रिमंग देवी दुर्गा शक्ति की अधिष्ठाती है। उनके साथ पद्महस्ता लक्ष्मी, वाणी पाणि सरस्वती, मूषक वाहन गणेश और मयूर वाहक कार्तिकेय विराजमान हैं।
ये जितनी मूर्तियाँ हैं, सब हमारे जीवन में सामाजिक न्याय की प्रतीक हैं। महिषासुर यदि अन्याय, अत्याचार औऱ पापाचार का प्रतीक है तो दुर्गा शक्ति, न्याय और हर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की प्रतीक है। उसकी आँखों में सिर्फ़ करुणा और दया के आँसू ही नहीं बहते, बल्कि क्रोध के स्फुलिंग भी छिटकते हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि सन १९७१ में भारत-पाक युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अचूक राजनीतिक बुद्धिमत्ता को देखकर अटल बिहारी वायपेयी ने उन्हें दूसरी दुर्गा कहा था। यह 'दुर्गा' कोई सांस्कृतिक मिथ नहीं, बल्कि हर औरत के भीतर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार का एक धधकता लावा है। भारतीय स्त्री की छवि में एक ओर देवदासी का असहाय चेहरा कौंधता है तो दूसरी तरफ़ उसकी आँखों में दुर्गा का शक्तिशाली तेवर भी चमकता है। दुर्गा जैसी महास्त्री जिसे हमारे लोक जीवन और सांस्कृतिक जीवन में 'देवी' कहा जाता है, दरअसल अन्याय के विरुद्ध एक सार्थक हस्तक्षेप का प्रतीक है। दुर्गा के सान्निध्य में आसन ग्रहण करती हुई देवियाँ लक्ष्मी, सरस्वती, धन और विद्या की प्रतीक हैं। गणेश हमेशा से विघ्न का विनाश करनेवाले एक शुभ देवता हैं, जबकि कार्तिकेय जीवन में विनय और सृजन के प्रतीक हैं। इनकी उपस्थिति से ही सामाजिक सृजन संभव है।
स्त्री के स्वाभिमान की पूजा
दुर्गा पूजा सिर्फ़ मिथ की पूजा नहीं, बल्कि स्त्री की ताक़त, सामर्थ्य लहर मूल्य विश्लेषण और उसके स्वाभिमान की एक सार्वजनिक 'पूजा' है। क्या विडंबना है कि आज दुर्गा पूजा, दुर्गाशप्तशती, दुर्गा स्त्रोत का पाठ उन धर्मभीरू घरों में ज़्यादा किया जाता है, जिन घरों में आज स्त्रियाँ ज़्यादा डरी और असुरक्षित हैं। वहाँ पुरुषों के रूप में महिषासुर रोज़ उनका मर्दन करता है। उन पर अत्याचार, ताड़ना और यातना के कोड़े बरसाता है। इस कारण हमारे समाज में आज दुर्गा के चेहरे कम दिखते हैं। देव-दासियों के ही असंख्य कातर चेहरे ज़्यादा दिखते हैं। ऐसे घरों में रोज़ दुर्गा पूजा नहीं, बल्कि पुरुष पूजा का अनुष्ठान संपन्न होता है। समाज और हमारे पारिवारिक जीवन में बढ़ती यह प्रवृत्ति दुर्गा पूजा का उपहास नहीं तो और क्या है? आज दुर्गा पूजा के निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है।
मूर्ति निर्माण का परंपरा
दुर्गा पूजा के इतिहास पर ग़ौर करें। बंगाल में दुर्गा पूजा कब से शुरू हुई, इस पर इतिहास के विद्वानों के अनेक मत हैं, फिर भी इस तथ्य से लोकमानस और विद्वान एक मत हैं कि सन १७९० में पहली बार कलकत्ता के पास हुगली के बारह ब्राह्मणों ने दुर्गा पूजा के सामूहिक अनुष्ठान की शुरुआत की। इतिहासकारों का मानना है कि बंगाल में दुर्गोत्सव पर मूर्ति निर्माण की परंपरा की शुरुआत ग्यारहवीं शताब्दी में शुरू हुई थी। आज बंगाल सहित पूरे देश में सांस्कृतिक वैभव के इस पर्व को जनजीवन में प्रतिष्ठान करने का श्रेय सन १५८३ ई. में ताहिरपुर (बंगाल) के महाराजा कंस नारायण को दिया जाता है। कहा जाता है कि वह दुर्गा पूजा के इतिहास की पहली विशाल पूजा थी।
पहले की दुर्गा पूजा में सिर्फ़ मूर्ति के रूप में दुर्गा महिषासुर का वध करती नहीं दीखती थी, बल्कि पूजा की आखिरी पेशकश पशु वध के रूप में प्रकट होती थी। अकसर भैसों का वध करके महिषासुर के प्रतीक का संहार किया लहर मूल्य विश्लेषण जाता था लेकिन वाह्य रायवंश में पैदा हुए शिवायन के प्रणेता कवि रामकृष्ण राय ने इस हिंसक प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया। फलतः आज दुर्गा पूजा मूर्ति पूजा का एक प्रतीक है,पर दुर्गा पूजा अब धीरे-धीरे धन कुबेरों के शक्ति वर्चस्व का प्रतीक भी बन गया है। यह इस सांस्कृतिक पर्व के मिथ के सौंदर्य बोध और जीवन दृष्टि को तोड़नेवाला साबित हो रहा है। आज हमारे लोक जीवन में दुर्गा की पूजा करने में लोगों का यकीन उतना नहीं रह गया है, जितना उसकी झाँकी देखने में है। दुर्गा की प्रतिमाएँ कलात्मक प्रतिमान हैं, स्त्री सौंदर्य का प्रदर्शन नहीं है। यदि हुसैन जैसे चित्रकार दुर्गा की प्रतिमा के बहाने स्त्री अंगों की वकालत करते हैं तो यह उनकी कला का चरम व्यावसायिकता और स्त्री की छवि के विरुद्ध एक सार्वजनिक उपहास है। दुर्गा एक सुंदर स्त्री भी है, जिनके पास पुष्ट उन्नत उरोज़, विशाल जंघाएँ और एक जोड़ी तेजस्वी आँखें भी हैं। इनमें काजल नहीं अत्याचार के विरुद्ध खिंची भौंहें हैं। उनके पास असाधारण पौरुषवाले चार शक्तिशाली हाथ भी हैं।
शोषण रहित समाज के लिए
दुर्गा पूजा मनाने का सही मतलब तो यही है कि समाज में स्त्री को लेकर किसी तरह के दिखावे, छलावे और शोषण के लिए लोक मानस में स्थान नहीं होना चाहिए।
दुर्भाग्य है कि बंगाल से शुरू हुई दुर्गा पूजा आज बीसवीं शताब्दी के भारत में धार्मिक पुनरुत्थान का एक अमोघ अस्त्र बन गई है। जबकि बंगाल के आरंभिक संस्कृति कर्मियों का उद्देश्य यह कतई नहीं था। आज दुर्गा पूजा-जैसे पर्वों को धार्मिक लोकाचार, कर्मकांड और किसी भी तरह के धार्मिक छलावे से बचाने की ज़रूरत है। तभी इस पर्व की सांस्कृतिक गरिमा की विरासत को हम समाज और जनमानस में सुरक्षित रख सकते हैं।
आज हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन में महिषासुरी शक्तियाँ दिन-प्रतिदिन हिंसक और खूँख्वार प्रवृत्तियों का रूप धारण कर चुकी हैं। समाज में दुर्गाओं का दहन रोज़ हो रहा है। यह सिर्फ़ इसलिए हो रहा है कि हमारे समाज में दुर्गा का आदर नहीं है। उसकी वास्तविक शक्ति का हमें आभास नहीं है। हमारे मिथ में दुर्गा की इस महाशक्ति का आभास राम को था।
उन्होंने रावण से युद्ध करने के पहले दुर्गा की पूजा की थी। आज के रामों में शक्ति पूजा की उस शक्ति और संघर्ष की क्षमता का अभाव है। इसलिए आज का मनुष्य बार-बार जीवन क्षेत्र में पराजित हो रहा है। इस पराजय से बचने का एक लहर मूल्य विश्लेषण ही रास्ता है, वह है राम की तरह असाधारण शक्ति का भंडार अपने अंदर पैदा करना। तब ही भीतर की दुर्गा प्रसन्न हो सकती हैं। जिस दिन आस्था पैदा होगी, उस दिन जय होगी।